मनोज स्वतंत्र, वरिष्ठ पत्रकार
बिहार में इस बार दिवाली की रौशनी सिर्फ दीयों और पटाखों तक सीमित नहीं है, बल्कि सियासी गलियारों में भी इसकी चमक और शोर सुनाई दे रहा है। यह वही समय है जब लोग अपने घरों को रोशनी से सजाते हैं, पर इस बार जनता अपने भविष्य को भी रोशन करने की तैयारी में है। चुनावी मौसम ने राज्य के हर गाँव, हर कस्बे, हर चौपाल में एक अलग तरह की ऊर्जा पैदा कर दी है। लेकिन इस ऊर्जा के साथ एक बेचैनी भी है। बेचैनी इस बात की कि क्या इस बार के वादों की लौ वास्तव में स्थायी होगी, या फिर यह भी पिछले चुनावों की तरह हवा के झोंकों में बुझ जाएगी।
बिहार की राजनीति का इतिहास बताता है कि यहाँ के चुनाव सिर्फ सत्ता परिवर्तन का साधन नहीं होते, बल्कि यह जनता की आशाओं, दर्दों और सपनों की परीक्षा भी होते हैं। इस बार की “चुनावी दिवाली” में यह परीक्षा और कठिन हो गई है। राज्य में युवा बेरोज़गारी, पलायन, शिक्षा की गिरती गुणवत्ता, और स्वास्थ्य की कमजोर व्यवस्था जैसे मुद्दे केंद्र में हैं। लाखों शिक्षित नौजवान हर साल नौकरी की तलाश में बिहार से बाहर निकल जाते हैं, और उनके खाली घरों में दीपक की लौ तो जलती है, पर मनों में अंधेरा रहता है। ऐसे में यह चुनाव सिर्फ राजनीतिक दलों की रैली या भाषणों की लड़ाई नहीं, बल्कि जनता की उम्मीदों का युद्ध है।
नीतीश कुमार के नेतृत्व वाली एनडीए सरकार विकास के अपने मॉडल पर भरोसा जताते हुए दावा कर रही है कि उसने बिहार में सड़कों, बिजली, शिक्षा और कानून-व्यवस्था में सुधार किया है। वहीं, विपक्षी दल, खासकर राष्ट्रीय जनता दल (राजद), इन दावों को “झूठी रोशनी” बताकर जनता को याद दिलाने की कोशिश कर रहे हैं कि अभी भी बिहार देश के सबसे गरीब और बेरोज़गार राज्यों में गिना जाता है। दोनों पक्षों की बयानबाज़ी के बीच जनता खामोश है, लेकिन उसकी नज़रों में बहुत कुछ बदल गया है। अब वह जाति या धर्म के आधार पर नहीं, बल्कि अपने घर के हालात देखकर निर्णय लेना चाहती है।
इस बार का चुनाव इसलिए भी खास है क्योंकि इसमें युवाओं की भूमिका निर्णायक बनती दिख रही है। पिछले एक दशक में बिहार के युवा राजनीति के प्रतीक नहीं, बल्कि पीड़ा के पर्याय बन गए हैं। शिक्षित युवाओं के लिए रोजगार की कमी और सरकारी नियुक्तियों में देरी ने उन्हें निराश किया है। चुनावी मंचों पर नेताओं के भाषणों में ‘एक करोड़ नौकरियों’ का वादा तो है, लेकिन ज़मीन पर हकीकत इससे कोसों दूर दिखती है। यही वजह है कि इस चुनाव में युवाओं का सवाल, “हमें कब मिलेगा हमारा हक?”, हर राजनीतिक नारे से बड़ा बन चुका है।
दूसरी ओर, ग्रामीण बिहार अब भी बुनियादी सुविधाओं के अभाव से जूझ रहा है। कई जिलों में आज भी स्वास्थ्य केंद्रों में डॉक्टर नहीं हैं, स्कूलों में शिक्षक नहीं, और खेतों में फसल तो है पर बाजार नहीं। जब दिवाली के दिन पटाखों की गूँज होती है, तो कई गाँवों में बच्चे अब भी अंधेरे में बैठकर पढ़ते हैं। विकास की रोशनी शहरी बिहार तक तो पहुँची है, लेकिन गाँवों के लिए वह अभी भी दूर की बात है। यही असमानता जनता को सबसे ज्यादा खटकती है।
महिलाएँ इस बार के चुनाव की एक बड़ी और निर्णायक मतदाता शक्ति हैं। पिछले कुछ वर्षों में बिहार की राजनीति में महिलाओं की भागीदारी उल्लेखनीय रूप से बढ़ी है। चाहे शराबबंदी का मुद्दा हो या स्वयं सहायता समूहों का सशक्तिकरण, महिलाओं ने राज्य की राजनीति को दिशा दी है। लेकिन हालिया रिपोर्ट बताती हैं कि कई क्षेत्रों में महिलाओं के नाम मतदाता सूची से गायब हो गए हैं। यह चिंता का विषय है क्योंकि बिहार की आधी आबादी को लोकतंत्र की प्रक्रिया में बराबर का हिस्सा मिलना चाहिए। महिलाएँ अब सिर्फ घर की रोशनी नहीं जलातीं, बल्कि लोकतंत्र की लौ भी थामे हुए हैं।
चुनावी रैलियों में नेताओं की भीड़, मंचों से बरसते वादे और सड़कों पर पोस्टरों की बहार देखने को मिल रही है। हर पार्टी दिवाली के दीपों की तरह अपने घोषणापत्र की बात कर रही है। कोई कहता है “हर हाथ को काम”, तो कोई “हर घर में शिक्षा” का वादा कर रहा है। लेकिन जनता अब समझदार हो चुकी है। उसे मालूम है कि चुनावी फुलझड़ियाँ कुछ ही समय के लिए चमकती हैं। वह अब यह जानना चाहती है कि इस चमक के पीछे असली लौ कौन-सी है, वह जो केवल वोट पाने के लिए जलती है, या वह जो सच में जनता के जीवन को उजाला देती है।
बिहार की चुनावी दिवाली में अब एक नया रंग भी दिखता है। सोशल मीडिया की राजनीति। फेसबुक, इंस्टाग्राम,और व्हाट्सएप पर हर पार्टी अपने पक्ष में हवा बनाने में जुटी है। युवा मतदाता डिजिटल मंचों पर बहस कर रहे हैं, आंकड़े साझा कर रहे हैं, और नेता-नेतृत्व को परख रहे हैं। यह बदलाव सकारात्मक है क्योंकि इससे विचारों का लोकतंत्रीकरण हुआ है। लेकिन इसके साथ ही यह खतरा भी है कि अफवाहें और गलत जानकारियाँ असली मुद्दों को पीछे न धकेल दें। लोकतंत्र की सच्ची रोशनी तभी कायम रहेगी, जब सूचना की आग झूठ की धुंध में न बदले।
इस चुनावी दिवाली में चुनाव आयोग की भूमिका भी अहम है। आयोग ने नकदी, शराब और उपहारों के वितरण पर सख्त नज़र रखी है ताकि “पैसे की राजनीति” जनता की सोच को न खरीद सके। लेकिन सच्चाई यह है कि कई इलाकों में अब भी ऐसे प्रलोभन वोटों को प्रभावित कर रहे हैं। लोकतंत्र तब तक स्वस्थ नहीं हो सकता जब तक वोट खरीदे जाते रहेंगे और जनता अपनी जिम्मेदारी को ‘कीमत’ पर नहीं, बल्कि ‘कर्म’ पर नहीं तोलेगी।
“बिहार की चुनावी दिवाली” असल में जनता की चेतना की परीक्षा है। जब दीपक जलता है, तो वह अंधकार को तो मिटाता ही है, साथ ही यह याद भी दिलाता है कि रोशनी की कीमत होती है।तेल, वात और बाती की। उसी तरह, लोकतंत्र की रोशनी भी तभी कायम रहेगी जब जनता अपने वोट को जिम्मेदारी की तरह समझे, न कि महज़ एक त्योहार की तरह। चुनाव केवल सरकार बनाने का साधन नहीं हैं, बल्कि यह तय करते हैं कि आने वाली पीढ़ियाँ कैसा बिहार देखेंगी।उम्मीदों का या निराशाओं का।
इस बार की दिवाली पर हर घर में दीपक जरूर जलेगा, पर बिहार के हर दिल में यह सवाल भी होगा, “क्या यह रोशनी हमारे भविष्य को भी उजागर करेगी?”
अगर जनता सचेत रही, अपने मुद्दों पर डटी रही, और जात-पात, धर्म या लालच की राजनीति से ऊपर उठकर मतदान किया, तो यह दिवाली सच में ऐतिहासिक बन जाएगी। तब यह सिर्फ घरों की रौशनी नहीं होगी, बल्कि लोकतंत्र की रौशनी होगी—जो आने वाले वर्षों तक पूरे राज्य को आलोकित करेगी।
अंत में, यही कहना उचित होगा कि इस चुनावी दिवाली में असली दीपक जनता के हाथ में है। वह चाहे तो इस दीपक से नई सुबह जगा सकती है, और चाहे तो लापरवाही से इसे बुझा भी सकती है। लोकतंत्र की सच्ची रौशनी वोट से जलती है, और बिहार की यह “चुनावी दिवाली” तभी पूर्ण होगी जब हर नागरिक अपने वोट से अंधेरे को मिटाने का संकल्प लेगा।
आइए इस दिवाली, केवल घर नहीं, अपने राज्य के भविष्य को भी रोशन करें। क्योंकि बिहार की असली दिवाली तब ही होगी, जब हर नागरिक अपने वोट से उम्मीद की लौ जलाएगा।