बिहार, जिसे भारत की राजनीतिक प्रयोगशाला कहा जाता है, जहां जेपी आंदोलन से लेकर मंडल और कमंडल तक की राजनीति ने जन्म लिया, वही बिहार आज भी बेरोजगारी, पलायन, टूटी सड़कें, गिरता शिक्षा स्तर और बदहाल स्वास्थ्य व्यवस्था से जूझ रहा है। हर पाँच साल पर उम्मीदों की गठरी लिए वोटर निकलता है, लेकिन हर बार राजनीतिक दलों की रणनीतियाँ सिर्फ उसे ठगने के लिए तैयार रहती हैं। चुनावी मौसम में जो नेता ‘जनता का सेवक’ बनता है, वही जीतते ही ‘राजा’ बन जाता है।
रणनीति के नाम पर जाति, धर्म और भावनाओं का खेल
बिहार की राजनीति लंबे समय से जातीय समीकरणों पर टिकी है। कोई यादव और मुस्लिम के नाम पर सत्ता में आता है, कोई अति पिछड़ा और दलित के नाम पर। कोई ‘हिंदू वोट बैंक’ का प्रयोग करता है, तो कोई ‘मुस्लिम तुष्टिकरण’ के आरोपों में जनता को उलझा देता है। हर दल जनता को विकास नहीं, पहचान के नाम पर बाँटता है। आरजेडी के लिए ‘MY समीकरण’ (मुस्लिम-यादव) प्राथमिक रहा है। वहीं बीजेपी का जोर हिंदुत्व और मोदी छवि पर होता है।
जेडीयू ने महादलितों और महिलाओं को साधने का प्रयोग किया, लेकिन यह भी राजनीति से ऊपर नहीं जा सका। कांग्रेस और अन्य दल सिर्फ अपना अस्तित्व बचाए रखने की कवायद में लगे रहे।
बिहार के वोटर को कभी यह नहीं बताया गया कि कब तक उसका बच्चा दूसरी जगह जाकर मेहनत करेगा? क्यों उसके गांव में स्कूल नहीं है, अस्पताल नहीं है, पानी नहीं है?
वादों की फसल, हकीकत की बंजर जमीन
हर चुनाव से पहले वादों की बरसात होती है — 10 लाख नौकरियाँ, हर हाथ को काम, कृषि सुधार, महिला सुरक्षा, शिक्षा की क्रांति, स्मार्ट गांव–शहर, मेडिकल कॉलेज, हाईवे, एयरपोर्ट…
लेकिन हर बार बिहार का मतदाता चुनाव के बाद खुद से यह सवाल पूछता रह जाता है: “क्या मैंने फिर से ठगी खाई?” तेजस्वी यादव ने 10 लाख नौकरी देने का वादा किया था। लेकिन सरकार में आते ही ‘संभव नहीं है’ जैसी बातें सुनने को मिलीं।नीतीश कुमार ने ‘सुशासन बाबू’ की छवि बनाई, लेकिन बार-बार पाला बदलने की राजनीति ने भरोसा तोड़ा।भाजपा ने ‘डबल इंजन सरकार’ का वादा किया, लेकिन इंजन कभी पटरी पर ही नहीं आ सका। कांग्रेस और वाम दल सिर्फ भाषणों में जनता की आवाज बनते रहे, ज़मीनी स्तर पर नहीं। बिहार के वोटर ने वादों को अपना भविष्य समझा, लेकिन नेताओं ने उसे महज सत्ता की सीढ़ी बना लिया।
बेरोजगारी और पलायन: सबसे बड़ा धोखा
आज भी लाखों बिहार के नौजवान दिल्ली, पंजाब, गुजरात, महाराष्ट्र की फैक्ट्रियों, ढाबों, होटलों और सड़कों पर मज़दूरी कर रहे हैं। वे वही हैं जिन्होंने कभी बिहार को बदलने की उम्मीद में वोट दिया था। पलायन पर कोई ठोस नीति नहीं बनी। न तो स्थानीय उद्योग लगे,न खेती को रोजगार से जोड़ा गया,न शिक्षा को व्यावसायिक बनाया गया। सिर्फ प्रतियोगी परीक्षाओं के नाम पर करोड़ों युवा ठगे गए—कभी परीक्षा रद्द, कभी पेपर लीक, कभी नियुक्ति रुकी। एक तरफ नेता चुनावी सभाओं में “युवा शक्ति, बिहार की प्रगति” का नारा लगाते हैं, दूसरी ओर वही युवा PDS दुकान चलाने या चाय बेचने पर मजबूर हैं।
गठबंधन की गंदी राजनीति और विश्वासघात
बिहार की राजनीति विश्वासघात की पाठशाला बन गई है। नेताओं के लिए जनता का जनादेश सिर्फ ‘संख्या जोड़ने’ का एक तरीका बन गया है। 2020 में नीतीश कुमार NDA के साथ चुनाव जीते, फिर कुछ साल में महागठबंधन में चले गए। जनता ने तेजस्वी को विपक्ष सौंपा, लेकिन कुछ महीने बाद वही उपमुख्यमंत्री बन गए। फिर 2024 में वापस बीजेपी से हाथ मिला लिया।
यह सिलसिला जनता को यह सोचने पर मजबूर करता है – “क्या मेरा वोट अब कोई मायने नहीं रखता?”
बुनियादी सुविधाओं की अनदेखी: पराजित लोकतंत्र
जब गांवों में आज भी पीने का साफ पानी नहीं है, प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्र बंद हैं, शिक्षकों की भारी कमी है, और सड़कें बारिश में बह जाती हैं, तब सवाल उठता है “चुनावी रणनीति में इन मुद्दों की जगह क्यों नहीं है?” हर पार्टी की रणनीति में Facebook पोस्ट, Twitter प्रचार, जातीय सम्मेलन, धर्मगुरुओं की रैलियाँ, और बाहरी स्टार प्रचारक होते हैं, लेकिन ‘गांव का सच’ गायब होता है।
महिलाओं को केवल पोस्टर में जगह
राजनीतिक दल महिलाओं को सशक्तिकरण के नाम पर सिर्फ पोस्टर और घोषणाओं तक सीमित रखते हैं।शराबबंदी की आड़ में कानून का दुरुपयोग। रोजगार और सुरक्षा पर कोई विशेष पहल नहीं,न पंचायत स्तर पर सही प्रतिनिधित्व को मजबूत किया गया। महिला वोटर को ‘सम्मान’ का वादा दिया गया, लेकिन सम्मान से पहले ज़रूरत है अवसरों की, जो अब तक सिर्फ घोषणाओं में दिखे।
नई पीढ़ी का गुस्सा – मौन विद्रोह की आहट
अब की पीढ़ी अधिक सजग है। सोशल मीडिया और वैकल्पिक मीडिया के ज़रिए वे सवाल पूछ रही है, कटाक्ष कर रही है, और भविष्य में विकल्प ढूंढने की सोच रही है। लेकिन उन पर देशद्रोही, अराजक, या प्रेरित जैसे आरोप लगाकर उन्हें चुप कराया जाता है। हर चुनाव में पहली बार वोट देने वाले युवाओं की संख्या लाखों में होती है, लेकिन उनकी आवाज किसी दल की रणनीति में ईमानदारी से शामिल नहीं होती।
एक मौन क्रांति की ज़रूरत
बिहार का वोटर अब बार-बार यह समझने लगा है कि राजनीतिक रणनीति का मतलब अब सिर्फ उसे भ्रमित करना है। उसके विकास, शिक्षा, स्वास्थ्य, रोजगार की चिंता किसी को नहीं है। वह सिर्फ आंकड़ों का हिस्सा है—कभी “70 प्रतिशत मतदान हुआ”, कभी “मुस्लिम-यादव सीट”, कभी “हिंदू बहुल इलाका”। अब ज़रूरत है कि बिहार का वोटर खुद नेतृत्व गढ़े—नेताओं को उनके काम के आधार पर परखे, वादों से नहीं, बल्कि पिछले कार्यकाल के प्रदर्शन से फैसला करे। क्योंकि यदि मतदाता फिर ठग लिए गए, तो इतिहास उन्हें कभी माफ नहीं करेगा।
बिहार को अब राजनीतिक चालों से नहीं, जनता की समझदारी से बदला जा सकता है। यही समय है सवाल पूछने का –
“कब तक ठगोगे हमें? और कब तक हम चुप रहेंगे?”