‘हर घर नौकरी’ का वादा: चुनावी जुमला या बदलाव की उम्मीद

 

लेखक:- यशवंत एस. वाई.

 

 

बिहार में महागठबंधन के नेता तेजस्वी यादव ने ‘हर घर नौकरी’ का वादा किया है। हाल ही में उन्होंने पत्रकारों को संबोधित करते हुए कहा कि यदि उनकी सरकार सत्ता में आती है, तो वे प्रत्येक परिवार को कम-से-कम एक नौकरी प्रदान करने की नीति तैयार करेंगे। इस घोषणा के बाद देश भर के राजनीतिक और आर्थिक विशेषज्ञ अपने-अपने दृष्टिकोण से पक्ष और विपक्ष में तर्क दे रहे हैं। ऐसे में इस चुनावी वादे की सार्थकता को निष्पक्षता की कसौटी पर परखना आवश्यक है। यह इसलिए भी जरूरी है, क्योंकि चुनावों से पहले मतदाताओं को आकर्षित करने के लिए राजनीतिक दल और उनके नेता बड़े-बड़े वादे करते हैं, लेकिन सत्ता हासिल करने के बाद कई बार इन वादों को ‘चुनावी जुमला’ करार दे दिया जाता है। परिणामस्वरूप, जनता उस बच्चे की तरह ठगा महसूस करती है, जिसे रसमलाई दिखाकर लेमनचूस दे दिया जाए।

 

सबसे पहले, हम यह समझने की कोशिश करते हैं कि तेजस्वी यादव की इस घोषणा का सामान्य भाषा में अर्थ क्या है। उनके अनुसार, उनकी सरकार शपथ ग्रहण के 20 दिनों के भीतर बिहार के सभी परिवारों में कम-से-कम एक नौकरी सुनिश्चित करने के लिए विधानमंडल से एक अधिनियम पारित कराएगी। यह अधिनियम अगले 20 महीनों में यह सुनिश्चित करेगा कि बिहार के प्रत्येक परिवार में कम-से-कम एक व्यक्ति को नौकरी मिले। ध्यान देने योग्य बात यह है कि तेजस्वी ने नौकरी की प्रकृति स्पष्ट नहीं की है। अर्थात्, यह निश्चित नहीं है कि सरकार जो नौकरी प्रदान करेगी, वह सरकारी होगी या निजी, स्थायी होगी या अस्थायी।

 

आइए, इसे आंकड़ों के माध्यम से समझते हैं। बिहार में हुए जातीय सर्वेक्षण के अनुसार, राज्य में कुल 2 करोड़ 97 लाख परिवार हैं। इसी सर्वेक्षण के आंकड़ों से पता चलता है कि बिहार में 18 लाख 23 हजार 261 लोग राज्य और केंद्र सरकार के विभिन्न विभागों और निकायों में सरकारी नौकरी में हैं। यदि यह मान लिया जाए कि ये सभी लोग अलग-अलग परिवारों से हैं, तब भी तेजस्वी को अपनी सरकार के पहले 20 महीनों में 2 करोड़ 79 लाख लोगों को नौकरी देनी होगी। स्पष्ट है कि न तो बिहार में और न ही भारत के किसी अन्य राज्य में सरकारी विभागों और निकायों में स्वीकृत पदों की संख्या इतनी है। रिक्तियों की बात करना हवा में महल बनाने जैसा है। इससे दो बातें स्पष्ट होती हैं: पहली, इन नौकरियों की प्रकृति पूर्ण रूप से स्थायी और सरकारी नहीं होगी, और दूसरी, इतनी बड़ी संख्या में नौकरियां सृजित करना चुनौतीपूर्ण है।

 

बिहार सरकार ने वर्ष 2025-26 के लिए 3.17 लाख करोड़ रुपये का अनुमानित बजट पेश किया है। चूंकि यह चुनावी वर्ष है, केंद्रीय अनुदानों में वृद्धि ने बजट के आकार को बढ़ाया है। नीतीश कुमार के चौथे कार्यकाल में यह अब तक का सबसे बड़ा बजट है, और सरकार इसे आजादी के बाद का सबसे बड़ा बजट बताकर प्रचारित भी कर रही है। वास्तविक स्थिति को समझने के लिए पिछले तीन वर्षों के बजट आंकड़ों पर नजर डालना जरूरी है। वर्ष 2022-23 में सरकार ने 2.37 लाख करोड़ रुपये, 2023-24 में 2.68 लाख करोड़ रुपये, और 2024-25 में 2.78 लाख करोड़ रुपये का बजट पेश किया था। इन आंकड़ों से स्पष्ट है कि राज्य के बजट में हर वर्ष वृद्धि हुई है, लेकिन इस वर्ष को छोड़कर, किसी भी वर्ष में बजट का आकार 3 लाख करोड़ रुपये से अधिक नहीं रहा। 2 करोड़ 79 लाख नई नौकरियों के सृजन से सरकार पर कम-से-कम 3360 करोड़ से 5600 करोड़ रुपये का वित्तीय बोझ पड़ेगा। यह अनुमान बिहार सरकार द्वारा अकुशल और अति-कुशल श्रमिकों के लिए निर्धारित दैनिक भत्ते के आधार पर किया गया है। वास्तविक वित्तीय बोझ इससे अधिक भी हो सकता है। इतना तय है कि यह बिहार के बजट पर भारी प्रभाव डालेगा।

 

इससे स्पष्ट है कि तेजस्वी यादव की यह घोषणा बिहार सरकार की आर्थिक नीतियों को व्यापक रूप से प्रभावित करेगी। अब सवाल यह है कि क्या इसे बिहार में राजनीतिक और प्रशासनिक स्तर पर लागू करना संभव होगा? इस प्रश्न का उत्तर तलाशने से पहले हमें इस नीति की संवैधानिकता और ऐतिहासिक पृष्ठभूमि को समझना होगा। भारतीय संविधान का अनुच्छेद 41 राज्य को अपने नागरिकों को काम का अधिकार प्रदान करने के लिए नीतियां बनाने का निर्देश देता है। यद्यपि यह मौलिक अधिकार नहीं है, संविधान के नीति निर्देशक सिद्धांतों को मौलिक अधिकारों में परिवर्तित करने का प्रावधान है। इसीलिए लंबे समय से देश में रोजगार के अधिकार को मौलिक अधिकार बनाने की मांग उठती रही है। इसी दिशा में एक कदम 2005 में यूपीए-1 सरकार द्वारा मनरेगा (महात्मा गांधी राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी अधिनियम) कानून के रूप में सामने आया। तब कई प्रमुख अखबारों ने लिखा था, ‘गांव के गरीबों को अब मिलेगा काम का अधिकार।’ कुछ विशेषज्ञ तेजस्वी की ‘हर घर नौकरी’ योजना को भी रोजगार के अधिकार से जोड़कर देख रहे हैं।

 

दरअसल, कांग्रेस ने 2004 के चुनाव से पहले ग्रामीण क्षेत्रों में 100 दिनों की न्यूनतम मजदूरी की गारंटी का वादा किया था। जब यूपीए सरकार बनी, तो ग्रामीण विकास मंत्रालय राष्ट्रीय जनता दल (राजद) के कोटे में आया, और रघुवंश प्रसाद सिंह को कैबिनेट मंत्री बनाया गया। इस वादे को पूरा करने के लिए कानून की रूपरेखा तैयार करने की जिम्मेदारी रघुवंश बाबू को सौंपी गई। यही कारण है कि राजद और तेजस्वी यादव समय-समय पर मनरेगा के शिल्पकार के रूप में रघुवंश बाबू के योगदान को रेखांकित करते हैं। जब ग्रामीण विकास मंत्रालय ने मनरेगा की रूपरेखा तैयार की और इसे विचार के लिए अन्य मंत्रालयों को भेजा, तब वित्त मंत्रालय के कुछ अधिकारियों ने इसे राजकोष पर बोझ बताकर विरोध किया। तब रघुवंश बाबू ने तर्क दिया, ‘रोजगार पर खर्च बोझ नहीं, निवेश है।’ तकनीकी कमियों के बावजूद, मनरेगा ग्रामीण आजीविका को बेहतर बनाने में सहायक सिद्ध हुआ है।

 

इस उदाहरण से स्पष्ट है कि यदि राजनीतिक इच्छाशक्ति दृढ़ हो, तो इस तरह के परिवर्तनकारी कदम उठाए जा सकते हैं। फिर भी, सवाल यह है कि क्या केवल कानून बना देने से कोई योजना धरातल पर लागू हो जाएगी? विभिन्न स्रोतों से प्राप्त जानकारी के अनुसार, बिहार में स्वीकृत रिक्त सरकारी पदों की संख्या लगभग 3 लाख है। इसलिए, इतनी बड़ी संख्या में सरकारी नौकरियां देना सरकार के लिए असंभव-सा है, जैसा कि मैंने ऊपर आंकड़ों के साथ उल्लेख किया है। अतः यह मानना उचित होगा कि तेजस्वी के वादे में नौकरी का अर्थ सरकारी और गैर-सरकारी दोनों प्रकार की नौकरियों से है। फिर भी, बिहार जैसे राज्य में, जहां औद्योगिक विकास नगण्य है, 20 महीनों (लगभग 2 वर्ष) में 2 करोड़ 79 लाख नौकरियां सृजित करना अत्यंत कठिन है। इसका यह अर्थ नहीं कि तेजस्वी इस योजना को लागू करने में पूर्णतः असमर्थ हैं, लेकिन उनके द्वारा निर्धारित समय-सीमा में इतने रोजगार सृजित करना अतिशयोक्तिपूर्ण और चुनावी उत्साह में किया गया वादा प्रतीत होता है।

 

इतने विश्लेषण के बाद यदि इस वादे के सकारात्मक पहलुओं पर बात न की जाए, तो विश्लेषण अधूरा रह जाएगा। इसलिए यह मानते हुए कि यदि महागठबंधन की सरकार बनती है और वह अपने इस वादे को पूर्ण रूप से न सही, आंशिक रूप से भी लागू कर पाती है, तो बिहार के सामाजिक, राजनीतिक और आर्थिक परिदृश्य में क्या बदलाव आएंगे? सबसे पहले, यदि महागठबंधन सरकार ऐसा कर पाती है, तो बिहार प्रत्येक परिवार में एक रोजगार की गारंटी देने वाला देश का पहला राज्य बन जाएगा। इससे पलायन, गरीबी, आजीविका और रोजगार के विभिन्न सूचकांकों में बिहार की स्थिति कई अन्य राज्यों की तुलना में बेहतर होगी। राज्य के सकल घरेलू उत्पाद, प्रति व्यक्ति आय, महंगाई दर, क्रय शक्ति, शहरी विकास और औद्योगीकरण जैसे क्षेत्रों में भी उल्लेखनीय वृद्धि देखने को मिल सकती है।

 

दूसरा बड़ा बदलाव शिक्षा और जीवन स्तर के क्षेत्र में आएगा। बिहार से रोजगार की तलाश में अन्य राज्यों में जाने वाले अकुशल मजदूरों में सबसे बड़ी आबादी अनुसूचित जाति और अति पिछड़ा वर्ग की है। बिहार में अशिक्षा, कुपोषण और आजीविका के विभिन्न मानदंडों पर सबसे अधिक पिछड़ी आबादी इन्हीं दो सामाजिक वर्गों से आती है। कई अर्थशास्त्रियों का मानना है कि अकुशल मजदूरों के लिए पलायन लाभकारी नहीं है, क्योंकि यह आय और बचत के अनुपात को कम करता है। ऐसे में ये मजदूर अपने परिवार की आजीविका तो चला लेते हैं, लेकिन उनके जीवन स्तर को बेहतर नहीं बना पाते। इसलिए, यदि बिहार में ही रोजगार के अवसर उपलब्ध हों, तो अकुशल मजदूरों की सामाजिक-आर्थिक स्थिति में सकारात्मक बदलाव देखने को मिल सकता है।

 

तेजस्वी यादव का ‘हर घर नौकरी’ का वादा चुनाव के समय मतदाताओं को आकर्षित करने के लिए भले ही एक जुमला जरूर है। लेकिन यह कहना ग़लत नहीं होगा कि अगर हकीकत बन जाए, तो राज्य की तस्वीर बदल सकती है। हालांकि, 20 महीनों में 2 करोड़ 79 लाख नौकरियां देना बेहद मुश्किल है, खासकर तब जब बिहार में सरकारी नौकरियों और औद्योगिक विकास की सीमाएं स्पष्ट हैं। फिर भी, अगर यह योजना आंशिक रूप से भी लागू हो पाती है, तो यह बिहार में पलायन, गरीबी और बेरोजगारी जैसी समस्याओं को कम करने में मददगार हो सकती है। यह वादा तभी सार्थक होगा, जब इसे लागू करने के लिए ठोस योजना और मजबूत इच्छाशक्ति हो।

 

(लेखक अधिवक्ता और राजनीतिक विषयों के अध्येता हैं।)

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