लोकतंत्र के सबसे ऊंचे पद और सर्वोच्च अदालत के बीच संवैधानिक व्याख्या को लेकर एक नया विमर्श खड़ा हो गया है। राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू ने सुप्रीम कोर्ट के उस आदेश पर गंभीर आपत्ति जताई है, जिसमें अदालत ने विधेयकों को मंजूरी देने या लौटाने के लिए राष्ट्रपति और राज्यपालों पर समयसीमा थोप दी थी।
राष्ट्रपति ने साफ शब्दों में कहा है कि संविधान में ऐसा कोई प्रावधान नहीं है, जो विधेयकों पर निर्णय के लिए कोई निश्चित समयसीमा तय करता हो। उन्होंने संविधान के अनुच्छेद 143(1) के तहत सर्वोच्च न्यायालय से राय मांगी है—जो अपने आप में एक संवैधानिक विमर्श की ओर इशारा करता है।
यह मुद्दा महज तकनीकी नहीं, बल्कि संवैधानिक मर्यादाओं और शक्तियों के संतुलन से जुड़ा हुआ है। राष्ट्रपति का यह रुख न केवल कार्यपालिका और न्यायपालिका के बीच खींची जा रही सीमाओं पर सवाल खड़ा करता है, बल्कि यह भी दर्शाता है कि क्या न्यायपालिका, संविधान में स्पष्ट न होने पर भी, कार्यपालिका को बाध्य कर सकती है?
विशेषज्ञ मानते हैं कि यह मामला आने वाले समय में संघीय ढांचे, विधायी प्रक्रिया और शक्तियों के पृथक्करण पर एक मिसाल कायम कर सकता है। अब नजरें सुप्रीम कोर्ट की संविधान पीठ पर टिकी हैं, जो यह तय करेगी कि लोकतंत्र के इन दो स्तंभों के बीच संतुलन किस दिशा में झुकेगा।
यह टकराव नहीं, लेकिन स्पष्ट सीमाओं की खोज है। संविधान के भीतर रहते हुए संस्थानों की भूमिका और दायित्व कितनी दूर तक फैल सकते हैं—इसका जवाब अब इतिहास की एक नई दहलीज़ पर लिखा जाएगा।