लेखक: प्रतीक संघवी, राजकोट
शिक्षा, जिसे समाज की नींव माना जाता है, अब मुनाफाखोरी और काले धन के कारोबार में बदलती जा रही है। निजीकरण की बढ़ती प्रवृत्ति और सरकारी स्कूलों की अनदेखी ने शिक्षा को एक व्यवसाय बना दिया है। आज की शिक्षा प्रणाली न केवल गुणवत्ता में पिछड़ रही है, बल्कि नैतिक मूल्यों से भी कोसों दूर होती जा रही है।
शिक्षा प्रणाली में निजीकरण का प्रभाव
आज से 20-30 साल पहले सरकारी स्कूलों में जो शिक्षा उपलब्ध थी, वह आज लाखों रुपये खर्च करने के बाद भी निजी स्कूलों में नहीं मिल रही। यह बदलाव शिक्षा के निजीकरण के दुष्प्रभाव को स्पष्ट करता है। डिग्रियां अब ज्ञान का प्रतीक न होकर पैसे के बल पर खरीदी जा रही हैं।
शिक्षण माफिया का बढ़ता प्रभाव
निजी स्कूलों और ट्रस्टों के माध्यम से एक शिक्षण माफिया तंत्र ने जन्म लिया है। फीस के नाम पर अलग-अलग मदों में पैसा वसूला जा रहा है, जैसे ट्यूशन फीस, खेल, टूर और अन्य शुल्क। इस तरह की व्यवस्था शिक्षण संस्थानों को काले धन का अड्डा बना रही है।
शिक्षकों की मजबूरी और शोषण
कुछ निजी स्कूल शिक्षकों को बैंक के माध्यम से वेतन देकर उसे नकद में वापस ले लेते हैं। यह शिक्षकों की मजबूरी और शिक्षण माफियाओं का डर दिखाता है। ऐसे माहौल में शिक्षा की गुणवत्ता पर सवाल खड़े होते हैं।
नैतिक मूल्यों की गिरावट
आज के शिक्षण संस्थान मार्क्स और स्कूलों की छवि को चमकाने तक सीमित हो गए हैं। शिक्षा का मूल उद्देश्य, नैतिकता और समाज निर्माण, कहीं खो गया है। जिन संस्थानों की नींव भ्रष्टाचार पर टिकी हो, वे बच्चों को कैसी शिक्षा देंगे?
समाज के लिए चिंतन का विषय
शिक्षा प्रणाली में हो रहे इस बदलाव को रोकने की आवश्यकता है। अगर समय रहते इस पर ध्यान नहीं दिया गया, तो आने वाले समय में शिक्षा का उद्देश्य पूरी तरह व्यावसायिक हो जाएगा।
लेख का निष्कर्ष:
“सोच-समझ कर जिसने पढ़ाई नहीं की, उसने जीवन बिगाड़ दिया।
सोच-समझ कर जिसने पढ़ाई की, उसने भी क्या उखाड़ लिया।”
यह पंक्तियां वर्तमान शिक्षा प्रणाली का कड़वा सच बयां करती हैं। शिक्षा को अगर व्यवसाय और भ्रष्टाचार से मुक्त नहीं किया गया, तो आने वाली पीढ़ियां केवल डिग्रीधारी बनकर रह जाएंगी, जिनमें न ज्ञान होगा और न नैतिकता।
जय हिंद!